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सिनेमा

बदल रहा है मराठी सिनेमा

डॉ॰ सतीश पावड़े


भारतीय सिनेमा का इतिहास मराठी सिनेमा से प्रारंभ होता है। साथ ही मराठी सिनेमा सबसे पुराना क्षेत्रीय भारतीय फिल्म उद्योग है। दादासाहेब फालके, बाबुराव पेंटर, व.शांताराम, भालजी पेंढारकर जैसे महान फिल्मकारों की विरासत मराठी सिनेमा के पास है। 'श्यामची आई' फिल्म ने राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त किया। दादा कोंडके की 24 से अधिक फिल्मों ने गोल्डेन जुबली मनाई। 'श्वास' ने गोल्डेन लोट्स पुरस्कार जीत कर 77 वें अकादमी पुरस्कार हेतु अधिकृत प्रविष्टि तक अपने आपको प्रतियोगी के रूप मे बनाए रखा। शांताराम युग की समाप्ति के बाद मराठी सिनेमा अपना रास्ता भटक चुका था। दादा कोंडके का युग समाप्त होते ही मराठी सिनेमा अपना अस्तित्व खोने लगा था।

80-90 के दशक तक आते-आते मराठी सिनेमा स्तरहीन हो गया। मराठी दर्शक मराठी सिनेमा से दूर भागने लगे। थियटरों में कब लगती थी ओर कब उतार दी जाती थी पता ही नहीं चलता था। कई निर्माता, निर्देशक, कलाकार भी फिल्मों की ओर अपना रुख मोड़ते रहे। किंतु 1990 के बाद शनैः शनैः यह चित्र बदलता गया। भूमंडलीकरण का दौर प्रारंभ होते ही 'मार्केट इकॉनमी' मराठी सिनेमा के लिए चुनौती बन गई। "खुद को बदलो नहीं तो समाप्त हो जाओ" की उक्ति सार्थक होने लगी। 2000 तक का काल मराठी सिनेमा का संक्रमण काल रहा है। 2000 मे बनी 'बिनधास्त' फिल्म मार्केट इकॉनमी की कसौटी पर खरी उतरी। यह फिल्म 'वेल मेड', 'वेल डिजाइंड' फिल्म थी। इस समय की यह सबसे हिट फिल्म रही। विख्यात अभिनेत्री ओर रंगकर्मी सीमा विश्वास ने इस फिल्म में अहम किरदार अदा किया था। इसके बाद 'श्वास' जैसी संवेदनशील फिल्म ने बॉक्स-ऑफिस के साथ ऑस्कर पुरस्कार तक अपनी छलाँग लगाई। इस समय तक फिल्मों का अर्थशास्त्र फिल्मकारों को समाझ में आने लगा था। फूहड़, बेहूदा कॉमेडी जैसे फिल्मों की दौड़ खत्म हो गई और मराठी सिनेमा बदलने लगा। 2014 तक इस बदलाव की गति बरकरार है।

विगत दस सालों में बनी मराठी फिल्मों ने मराठी सिनेमा में आमूलचूल परिवर्तन लाया है। फिल्म की सारी इकाइयों में दृष्टिगत तकनीकी बदलाव देखे जा सकते हैं। भूमंडलीकरण के चलते मराठी सिनेमा अब कॉर्पोरेट लुक मे बिंदस्त, श्वास के अलावा टिंग्या, पांढर, बलू, डोंबिवली फास्ट, मातीमाय, देउल, यलो, टाइमपास, दुनियादारी, फैंड्री, काकरचर्स 72 मेल एक प्रवास, अकादेमी अवार्ड के लिए चुनी गई। हरिश्चंद्राचीफैक्ट्री आदि फिल्मों ने अवार्ड्स के साथ बॉक्स-ऑफिस पर भी अपना लोहा मनवाया। रितेश देशमुख ने सलमान पैटर्न की लयभारी बनाकर कमाई के साथ मराठी फिल्मों में अपना प्रवेश सुनिश्चित किया। 4 दिनो में 13 करोड़ की कमाई के साथ रेकॉर्ड भी बनाया। टाइमपास फिल्म ने युवा मराठी वर्ग में लोकप्रियता हासिल कर 30 करोड़ की कमाई की। पाइरेटेडड सीडी वालों से निर्माता को परेशान होना पड़ा। अंततः 'मनसे' को उसे बचाने मैदान में उतरना पड़ा। दुनियादारी फिल्म ने 45 दिनों मे 25 करोड़ का धंधा किया। बढ़ते कमाई के आँकड़ों के साथ 'मल्टीप्लेक्स' में भी अपनी धाक मराठी फिल्में बना रही हैं। मराठी फिल्मों को अब निर्माण से लेकर वितरण तक की प्रक्रिया हेतु कामर्शियल, प्रोफेशनल और कॉर्पोरेट विजन मिल गया है। दर्शकों का क्षेत्र 'टेरिटोरी' मे इजाफा हो रहा है। तकनीकी क्षेत्र में भी मराठी सिनेमा काफी विकसित हो रहा है। मराठी सिनेमा की सफलता देख कर सलमान खान, अजय देवगन, अक्षय कुमार, रवि चोपड़ा, गुड्डू धनोवा मराठी फिल्मों में बतौर कई भूमिका मे आ रहे हैं। रितेश देशमुख, श्रेयश तलपड़े, माधुरी दीक्षित जैसे कलाकार अब अपनी 'मराठी आइडेंटिटी' को भुनाना चाहते है। कुल मिलाकर मराठी सिनेमा का बदलाव सभी को आकर्षित कर रह है। पर यह बदलाव एक सकारात्मक बदलाव है। यहाँ 'हेल्दी' प्रतियोगिता है। अच्छी फिल्में बनाने की ललक है। अच्छी खासी कमाई करने की होड़ है। किंतु उसकी सोच, प्रतिबद्धता, सृजनशीलता, भी महत्वपूर्ण है। विगत गत सालों मे किसान आत्महत्या पर 25 से अधिक फिल्में बनी हैं।

अंडरवर्ल्ड पर बनी पहली मराठी फिल्म 'रेगे', क्रिमिनल फैंटेसी 'साटर्डे-सनडे', सस्पेंस थ्रिलर 'रोशन विला, तथा 'अनवर', बिहार में शूट की गई, 'पुणे वाया बिहार', एक्शन थ्रिलर 'पुणे-52', हिंदी एविएंस की 'प्यारवाली लोवेस्टोरी', अमेरिकन कैब्रे स्टार डांसर 'केट' फेम 'हैलो नंदन' रोड मूवी जानर की 'चूक भूल धावी-ध्यावी', होमोसेक्सुयालिटी पर बनी 'थाँग', ऐतिहासिक प्रेम कथा पर बनी 'रामा-माधव', लोकरंग का फ्लेवर लेकर बनी 'नटरंग', 'जोगवा', 'विदूषक', ओर हाल ही में बनी चरित्रात्मक फिल्म 'डॉ. प्रकाश बाबा आमटे', 'मी सिंधु सकपाल' आदि मराठी की अब तक की सबसे अलग और बहुचर्चित फिल्में रही हैं। 'अ रेनी डे', 'येल्लो', आम्ही बोलतो मराठी, ककस्पर्श, आजचा दिवस माझा, बीपी, दिल्लीन मुजरा गल्लीन गोंधल, अस्तु, एलीजाबेथ एकादशी, महदू, टपाल आदि अलग अलग जानर की फिल्में भी मराठी सिनेमा के आज के परिप्रेक्ष्य को सार्थक बना रही हैं। शनैः शनैः मराठी सिनेमा अब अमीर होता दिखाई दे रहा है। कल तक एक करोड़ में बनने वाली फिल्मों का बजट अब दस करोड़ पहुँच गया है। 5-10 करोड़ की कमाई अब 35-40 करोड़ पहुँच गई है। नई तकनीक, नए कैमरे, नए लोकेशन के साथ मराठी फिल्मों की परंपरागत छवि को तोड़ रहा है। कहानी और फिल्मी ट्रीटमेंट के चलते मराठी सिनेमा अब तमिल और तेलगु में भी डब होने लगा है। 'जाऊ मिटो खाऊ' पर वेल्डन अब्बा बनाई गई। 'डोंबिबल फास्ट' तमिल में रीमेक की गई। मराठी फिल्मों में अब विदेश आसानी से दिखने लगा है। 'लाइमरी' दुबई में शूट की गई। येल्लो बैंकाक में, इश्कवाला लव मारीशस में, मुकाम पोस्ट लंदन में, साद तथा रफूचक्कर मलेशिया में फिल्माई गई हैं।

अभिजीत पनसे, संजय जाधव, रवि जाधव, गजेंद्र आहिरे, मृणाल कुलकर्णी, सचिन गोस्वामी, मकरंद देशपांडे, चंद्रकांत कुलकर्णी, नागराज मंजुले, परेश मोखठी, राहुल जाधव, संदेश भंडारे, उमेश कुलकर्णी, चित्रा पालेकर, निखिल महाजन, महेश सिमय, सतीश मतेलग, रेणु देशई, अदित्या सरपोलदार, हमें दाड़े, प्रशांत गिरकर, नागेश भोसले, नितिन चंद्रकांत देसाई, दीपक सावंत, विजू माने, सतीश रजवाड़े, जैसे युवा निर्देशक मराठी सिनेमा को सभी मायने में अमीर, खूबसूरत, संवेदनशील, आकारशा, वेलमड़े, दर्शनीय और प्रोफेशनल बना रहे है। नई-नई तकनीक का प्रयोग कर रहे है।

ऊपर निर्दिष्ट कई निर्देशक स्वयं कैमरामैन अथवा डाइरेक्टर ऑफ फोटोग्राफी है, अथवा एडिटर हैं। जिसका लाभ उन्हें अनायास मिलता है। स्प्लीते बिन टेक्निक, थ्री डी अनिमेट्रोनिकस वफक्स, सुपर एंपोसिंग, आदि तकनीक के साथ 35 एमएम डाल्वी साउंड के तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है। जिसमें मराठी सिनेमा तकनीक में अधिक एडवांस बनाया जा रहा है। संपादन की की प्रक्रिया भी अत्याधुनिक हो जीएसआई है। मराठी में प्रतिवर्ष 150 फिल्में बन रही है। दिन ब दिन रोज नए कॉर्पोरेट प्रोड्यूसर मराठी में आ रहे हैं, जिसके कारण सिस्टमेटिक प्रॉडक्शन और प्रमोशन की गतिविधियों को गति मिल रही है। गुजरात, म.प्र., उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, और गोवा मराठी फिल्मों के नए सर्किट बन गए है। जी सिनेमा कवल मराठी जी सिनेमा चैनल ही नहीं चला रहा है बल्कि दर्जनों मराठी फिल्मों का प्रॉडक्शन भी कर रहा है। मराठी फिल्मों के प्रमोशन तथा प्रॉडक्शन के तरीकों में भी बदलाव दिखाई दे रहा है। सोशल मीडिया का भरपूर प्रयोग, टैलेंट शो, रियलिटि शो, कॉलेज संस्थाओं के फंक्शन, मल्टीप्लेक्स में जाकर फिल्मों का प्रमोशन किया जा रहा है। डिजिटल मीडिया, स्लोगन, इंटरनेट एड्स, आकर्षक वेबसाइट्स, मीडिया पार्टनरशिप के साथ मार्केटिंग के नए फंडे अपनाए जा रहे हैं। ए.टी.एल. (टेलीविज़न रेडियो), बी.टी.एल. (डाइरैक्ट मार्केटिंग) माध्यम द्वारा मार्केटिंग की जा रही है। मीडिया पार्टनरशिप के तत्व और सुविधा अपनाई जा रही है। करोड़ के क्ल्ब्स मे आने की आकांक्षाएँ बढ़ रही हैं।

मराठी सिनेमा के इस परिदृश्य को देख कर अब विदर्भ, मराठवाड़ा, खानदेश जैसे क्षेत्र भी फिल्म निर्माण की गतिविधियों को बढ़ावा दे रहे हैं। नए नए प्रोड्यूसर अब इनवेस्टमेंट के तौर पर मराठी सिनेमा में पैसा लगाना चाहते हैं। कुछ अभिनेता-अभिनेत्री पार्टनरशिप मे प्रॉडक्शन हाउस खोल रहे हैं। नए नए कलाकारों को अवसर दे रहे हैं। कुल मिलाकर मराठी इंडस्ट्री को अब बिजनेस अथवा प्रोफेशन की समझ आ गई है। यही उसका तात्पर्य है।

प्रॉडक्शन, डाइरैक्शन, कहानी तकनीक, ट्रीटमेंट, दर्शको की पसंद, बॉक्स ऑफिस का गणित, अवार्ड की व्यवस्था, मल्टीप्लेक्स फंडा, फिल्मों को रिलीज करने की राजनीति, प्रमोशन के नए नए तरीके, इवैंट मैनेजमेंट, वेल मेड डिजाइंड फिल्मों का निर्माण एवं मार्केटिंग फिल्मों के सिक्वल्स का निर्माण, सृजनात्मकता, प्रयोगशीलता, प्रस्तुतीकरण आदि सभी के परिप्रेक्ष्य में मराठी सिनेमा बदल रहा है। यह परिवर्तन निश्चित ही मराठी फिल्मों को वैश्विक पहचान दे सकता है।


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हिंदी समय में डॉ॰ सतीश पावड़े की रचनाएँ